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सिस्टम की लापरवाही और निजी अस्पताल की लालच ने छीन ली एक नवजात की जान, मजदूर पिता की आंखों के सामने टूटा सपना

हरि अग्रवाल@त्वरित टिप्पणी

छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा जिले से एक दिल दहला देने वाली और सिस्टम की घोर लापरवाही को उजागर करने वाली घटना सामने आई है, जिसने न सिर्फ मानवता को शर्मसार किया, बल्कि एक गरीब मजदूर पिता की आंखों के सामने उसका नवजात बच्चा सिस्टम की वजह से दम तोड़ गया। यह घटना सवाल उठाती है कि क्या आज भी गरीबों के लिए सरकारी अस्पतालों में इलाज एक सपना मात्र है? क्या निजी अस्पतालों की मुनाफाखोरी इंसानियत से बड़ी हो चुकी है?

ग्राम बसंतपुर निवासी जितेन्द्र साहू एक मेहनती मजदूर हैं, जो रोज कमाकर अपने परिवार का पेट पालते हैं। जब उनकी पत्नी को प्रसव पीड़ा शुरू हुई, तो वे उम्मीद लेकर जिले के सबसे बड़े और सरकारी जिला अस्पताल, जांजगीर पहुंचे। मगर दुर्भाग्य देखिए, वहां स्त्री रोग विशेषज्ञ ही मौजूद नहीं था।

डॉक्टरों ने बगैर कोई व्यवस्था करने के किसी अन्य सरकारी अस्पताल रेफर कर दिया। मगर वहां भी हालात कुछ बेहतर नहीं थे। वहां आधे प्रसव के बाद स्थिति जटिल हो गई और अंततः उन्हें एक निजी अस्पताल भेजा गया।

निजी अस्पताल में प्रसव तो पूरा हो गया, लेकिन नवजात शिशु की तबीयत नाजुक थी। डॉक्टरों ने तत्काल ही उसे एक और निजी अस्पताल में रेफर कर दिया। जितेन्द्र को लगा कि अब बच्चा ठीक हो जाएगा, लेकिन उनकी मुसीबत तो अभी शुरू ही हुई थी।

जांजगीर के इस निजी अस्पताल में शिशु को भर्ती तो कर लिया गया, लेकिन जल्द ही उन्हें मोटी रकम जमा करने के लिए कहा गया। अस्पताल प्रबंधन ने कहा कि बच्चे की हालत गंभीर है और उसे बचाने के लिए महंगे इलाज की जरूरत है।

मजबूर पिता जितेन्द्र ने किसी तरह कर्ज लेकर, गहने गिरवी रखकर पैसे की व्यवस्था की। उन्हें हर हाल में अपने बच्चे की जान बचानी थी। लेकिन जितेन्द्र का आरोप है कि जिस रात उन्होंने पैसे दिए, उसी रात उनके बच्चे की मौत हो गई थी।

सबसे चौंकाने वाला आरोप यह है कि अस्पताल प्रशासन ने उन्हें अगले दिन तक यही बताया कि बच्चा जीवित है और इलाज जारी है। इलाज के नाम पर लगातार बिल बढ़ता गया। जब जितेन्द्र ने बार-बार बच्चे को देखने की जिद की, एक बार उसे बच्चा दिखाया गया, तो वह कोई अन्य बच्चा था। काफी जिद करने पर आखिरकार उन्हें हकीकत बताई गई कि उनका बच्चा अब इस दुनिया में नहीं है।

इस घटना ने जिले भर को झकझोर दिया है। यह सिर्फ एक बच्चा नहीं मरा है, बल्कि सिस्टम की असफलता, सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की लचर व्यवस्था और निजी अस्पतालों की मुनाफाखोरी ने एक उम्मीद, एक जीवन, एक सपना छीन लिया।

जितेन्द्र साहू की गोद सूनी है, और वे सवाल पूछ रहे हैं, अगर सरकारी अस्पताल में समय रहते इलाज मिल जाता, तो क्या मेरा बच्चा जिंदा होता? अगर निजी अस्पताल ने सिर्फ मानवता दिखाई होती, तो क्या मुझे झूठ में जीना पड़ता?”

जिम्मेदार कौन?

यह सवाल अब पूरे जिले के सामने है। क्या जिम्मेदार सिर्फ वह सरकारी अस्पताल है, जहां स्त्री रोग विशेषज्ञ नहीं था? या वह पूरा तंत्र जो समय रहते एक गर्भवती महिला को समुचित उपचार नहीं दे सका? और सबसे बड़ी बात – क्या ऐसे निजी अस्पतालों पर कार्रवाई होगी, जो पैसे के लिए मृत शरीर को जिंदा दिखाकर इंसानों के साथ छल करते हैं?

गरीबों की पीड़ा कोई नहीं सुनता?

आज जितेन्द्र साहू जैसे हजारों लोग छत्तीसगढ़ और देश भर में मौजूद हैं, जो किसी बड़े शहर में नहीं, बल्कि छोटे गांवों में स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव में जीते हैं। उनके लिए सरकारी अस्पताल ही एकमात्र सहारा होता है, लेकिन जब वहां डॉक्टर तक न हों, तो वे कहां जाएं?

निजी अस्पतालों के लिए तो वे सिर्फ एक “पैकेज” हैं – जितना निचोड़ सकते हो, निचोड़ लो। लेकिन एक गरीब के लिए बच्चा उसकी दुनिया होता है, उसकी मेहनत का फल होता है।

क्या अब कुछ बदलेगा?

सरकार, स्वास्थ्य विभाग और समाज – सभी को इस घटना से सबक लेना होगा।

सरकारी अस्पतालों में विशेषज्ञ डॉक्टरों की तैनाती सुनिश्चित की जानी चाहिए।

निजी अस्पतालों पर निगरानी और जवाबदेही तय होनी चाहिए।

गरीबों के लिए इमरजेंसी मेडिकल सहायता योजना को और प्रभावशाली बनाया जाना चाहिए।

जितेन्द्र साहू की आंखों से आंसू नहीं रुकते। वे कहते हैं,

 “मैं मजदूर हूं, अमीर नहीं। पर मेरा बच्चा मेरा खजाना था। अब सब कुछ चला गया। बस न्याय चाहिए…”

यह घटना सिर्फ एक खबर नहीं है। यह हमारी व्यवस्था की सच्चाई है, जो कागजों पर योजनाएं बनाकर अखबारों में छपती है, लेकिन ज़मीन पर गरीबों की चीखें सुनाई नहीं देतीं।

अब वक्त है कि ऐसे मामलों पर सरकारें सिर्फ बयानबाज़ी न करें, बल्कि संवेदनशीलता और जवाबदेही के साथ काम करें। क्योंकि हर जीवन कीमती है, चाहे वह अमीर का हो या गरीब का।

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