
त्वरित टिप्पणी@हरि अग्रवाल
छत्तीसगढ़ में लगातार पत्रकारों के साथ हो रही घटनाओं ने यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या लोकतंत्र का चौथा स्तंभ सुरक्षित है? रायपुर के अंबेडकर अस्पताल में पत्रकारों के साथ हुई मारपीट, फोटो जर्नलिस्ट के घर घुसकर हमला और बीजापुर में पत्रकार मुकेश चंद्राकर की हत्या जैसी अनगिनत घटनाएं न केवल चिंताजनक हैं, बल्कि यह दर्शाती हैं कि पत्रकारों की सुरक्षा के लिए सख्त कानून की सख्त जरूरत है।
अंबेडकर अस्पताल की शर्मनाक घटना
रविवार देर रात अंबेडकर अस्पताल, रायपुर में उस समय अराजकता फैल गई जब एक न्यूज़ चैनल के पत्रकार रायपुर में हुई चाकूबाज़ी की घटना में घायल व्यक्ति की रिपोर्टिंग करने अस्पताल पहुँचे। वहां मौजूद बाउंसरों ने पत्रकारों को रोकने की कोशिश की और उनसे मारपीट पर उतर आए। जब अन्य पत्रकार और प्रेस क्लब के पदाधिकारी वहां पहुंचे, तो बाउंसरों ने पुलिस की मौजूदगी में भी पत्रकारों के साथ धक्का-मुक्की शुरू कर दी।
सबसे खौफनाक बात यह रही कि बाउंसर एजेंसी का संचालक वसीम बाबू पिस्तौल लेकर अस्पताल पहुंचा और पत्रकारों को खुलेआम धमकाने लगा। पुलिस ने एफआईआर दर्ज कर वसीम बाबू और दो अन्य बाउंसरों को गिरफ्तार किया है और वसीम के घर से पिस्तौल और गोलियां भी बरामद की गईं। सवाल यह है कि लोग इतने बेखौफ क्यों हो गए है की पत्रकारों को धमकाने और उनके साथ जघन्य अपराध करने उतारू हैं। इन्हें इतना प्रश्रय कौन दे रहा है?
हालांकि स्वास्थ्य मंत्री श्याम बिहारी जायसवाल ने मामले की निंदा करते हुए कहा कि पत्रकारों को धमकाने और बदसलूकी करने वालों को बख्शा नहीं जाएगा।
सच्चाई की कीमत मुकेश की हत्या!
जनवरी 2025 में बीजापुर में पत्रकार मुकेश चंद्राकर की लाश एक निर्माण कंपनी के टैंक में मिली। उन्होंने 120 करोड़ के सड़क निर्माण घोटाले का खुलासा किया था। इस साहसी पत्रकार की हत्या ने छत्तीसगढ़ ही नहीं, पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। लेकिन दुख की बात यह है कि आज तक इस मामले में न्याय की प्रक्रिया धीमी है।
मुकेश चंद्राकर की हत्या कोई सामान्य घटना नहीं थी। यह दिखाता है कि जब पत्रकार सच्चाई के करीब पहुँचते हैं, तो उनकी जान खतरे में पड़ जाती है। यह एक स्पष्ट संदेश है कि बिना सुरक्षा व्यवस्था के पत्रकारों का सच्चाई के लिए लड़ना आसान नहीं।
फोटो पत्रकार के घर घुसकर मारपीट
हाल में राजधानी रायपुर के एक वरिष्ठ फोटो पत्रकार के साथ भी मारपीट की गई। हमलावर उनके घर में घुसे और बर्बरता से हमला किया। यह घटना बताती है कि अब पत्रकार न तो दफ्तर में सुरक्षित हैं, न सड़कों पर और न ही अपने घरों में।
“नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में दोहरा संकट’’
छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित इलाकों में पत्रकारों को नक्सलियों और सुरक्षाबलों दोनों के दबाव का सामना करना पड़ता है। इन क्षेत्रों में भ्रष्टाचार या सरकारी अनियमितताओं की रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकार अक्सर “नक्सल समर्थक“ या “सरकारी एजेंट“ के लेबल से निशाने पर आते हैं । ऐसे में, एक मजबूत कानून के बिना उनकी सुरक्षा असंभव है।
प्रेस की स्वतंत्रता पर हमले
देश भर में प्रेस की स्वतंत्रता पर संकट गहराता जा रहा है। रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स की 2024 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में 161वें स्थान पर है। यह स्थिति तब और चिंताजनक हो जाती है जब राज्य स्तर पर पत्रकारों को खुलकर काम करने नहीं दिया जाता।
छत्तीसगढ़ जैसे राज्य, जहां नक्सल प्रभावित इलाकों में पत्रकार पहले से ही खतरे के साए में काम करते हैं, वहां शहरी क्षेत्रों में भी हमलों की बढ़ती घटनाएं लोकतंत्र की सेहत के लिए खतरा हैं।
पत्रकार सुरक्षा कानूनः अधूरी पहल, दब चुकी फाइल
छत्तीसगढ़ में पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार ने वर्ष 2023 में ‘छत्तीसगढ़ मीडियाकर्मी सुरक्षा अधिनियम’ का मसौदा तैयार किया था। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की पहल पर यह कानून राज्य विधानसभा में पारित हुआ। लेकिन दुर्भाग्यवश यह कानून केवल कागजों में रह गया, क्योंकि इसके बाद भाजपा सरकार ने सत्ता संभालते ही इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया।
इस कानून का उद्देश्य था: पत्रकारों को उनकी रिपोर्टिंग के दौरान सुरक्षा देना, हमलों की स्थिति में त्वरित न्याय, और दोषियों पर सख्त कार्रवाई। लेकिन मौजूदा सरकार ने इस कानून को लागू करने में न कोई रुचि दिखाई, न ही इसके लिए कोई अधिसूचना जारी की।
“राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव’
’’कांग्रेस का प्रयास और विवाद’’: 2023 में कांग्रेस सरकार ने ’छत्तीसगढ़ मीडियाकर्मी सुरक्षा अधिनियम’ पारित किया, जिसका उद्देश्य पत्रकारों को सुरक्षा, त्वरित न्याय और दोषियों पर कार्रवाई सुनिश्चित करना था। हालाँकि, इस कानून को पत्रकार संगठनों ने “छलावा“ बताया, क्योंकि इसमें जस्टिस आफताब आलम समिति के 71 प्रावधानों को घटाकर 23 कर दिया गया और सजा को जुर्माने तक सीमित कर दिया।
’’भाजपा की निष्क्रियता’’: 2023 के बाद सत्ता में आई भाजपा सरकार ने इस कानून को लागू करने के बजाय इसे नज़रअंदाज़ किया। मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय ने 2025 में नए कानून का वादा किया, लेकिन यह अभी तक अधिसूचना के बिना ही है ।
’’राजनीतिक प्राथमिकताओं का टकराव’’: विपक्षी दलों का आरोप है कि सरकार “प्रभावशाली पत्रकारों“ को लाभ पहुँचाने वाले प्रावधानों पर ध्यान केंद्रित करती है, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों के पत्रकारों की सुरक्षा उपेक्षित रहती।
“राष्ट्रीय पत्रकार नीति”: भारत में पत्रकारों की सुरक्षा से संबंधित कोई स्पष्ट राष्ट्रीय कानून नहीं है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने कई बार राज्य सरकारों को पत्रकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने की सलाह दी है, लेकिन यह सलाहें अमल में नहीं आ पातीं। महाराष्ट्र और झारखंड जैसे कुछ राज्यों ने पत्रकार सुरक्षा कानून के प्रयास किए हैं, लेकिन उनका प्रभाव भी सीमित रहा है।
कानूनी प्रावधानों की कमजोरियाँ
’’दंड प्रावधानों का कमजोर होना’’: 2023 के कानून में पत्रकारों को प्रताड़ित करने पर केवल 25,000 रुपये का जुर्माना है, जबकि मूल ड्राफ्ट में एक साल की जेल की सजा का प्रावधान था। इससे अपराधियों को प्रोत्साहन मिलता है।
’’जांच प्रक्रिया में पक्षपात’’: कानून के तहत जिला पुलिस अधिकारी को जांच का अधिकार दिया गया, जबकि पत्रकारों का मानना है कि इन्हीं अधिकारियों के निर्देश पर प्रताड़ना होती है ।
’’राजनीतिक हस्तक्षेप’’: 2019 में कांग्रेस शासनकाल में पत्रकार नीलेश शर्मा को “व्यंग्य“ लिखने के आरोप में गिरफ्तार किया गया, जो दर्शाता है कि सत्ता पक्ष चुनौती देने वाली आवाज़ों को दबाने का प्रयास करता है ।
प्रेस स्वतंत्रता पर संकट
’’भारत की रैंकिंग’’: ’रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स’ की 2024 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में 161वें स्थान पर है।
’’छत्तीसगढ़ की विडंबना’’: नक्सलियों, भ्रष्ट अधिकारियों, और राजनीतिक दबाव के बीच पत्रकारों की सुरक्षा चुनौतीपूर्ण है। 2010 से अब तक राज्य में कम से कम 5 पत्रकारों की हत्याएँ हो चुकी हैं ।
“अब समय सख्त कार्रवाई का”
छत्तीसगढ़ सरकार को तत्काल निम्न कदम उठाने चाहिएः
1. ’’पत्रकार सुरक्षा कानून को लागू करना’’: 2023 के कानून को संशोधित करके इसमें कड़े दंड और स्वतंत्र जांच तंत्र शामिल किए जाएँ।
2. ’’हेल्पलाइन और फास्ट ट्रैक अदालतें’’: पत्रकारों के लिए 24×7 आपातकालीन सेवाएँ और मामलों की त्वरित सुनवाई।
3. ’’मीडिया सुरक्षा प्रकोष्ठ’’: हर जिले में विशेष इकाइयाँ गठित की जाएँ, जो पत्रकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करें।
4. ’’राजनीतिक इच्छाशक्ति’’: सरकार को पत्रकारों के खिलाफ हिंसा को “लोकतंत्र पर हमला“ मानते हुए शून्य सहनशीलता की नीति अपनानी चाहिए।