POLITICAL NEWS: चुनाव की दस्तक के साथ ही बढ़ने लगी जनता की पूछपरख, कोई लगा रहा शिविर तो कोई जनता का सुख दुख जानने निकला
जांजगीर-चांपा। विधानसभा चुनाव की सरगर्मी धीरे धीरे बढ़ने लगी है। बीजेपी का पहला पत्ता खुलने के बाद खेल जमने लगा है। चुनावी महासंग्राम की दस्तक के साथ ही जनता की पूछपरख बढ़ गई है। नेताओं को अचानक जनता की याद आने लगी है। कोई स्वास्थ्य शिविर के बहाने जनता का दुख हरने की कोशिश कर रहा है तो कोई जनता के बीच जाकर उनका दुख सुख बांटने की कोशिश कर रहा है। इस तरह का प्रपंच कर नेता अपने पक्ष में माहौल बना रहे हैं। वहीं दूसरी ओर समय की दस्तक से जनता के लिए यही आवाज निकल रही है कि सावधान! फिर से मैं आपके भविष्य को गढ़ने आ गया हूं। लिख लो अपना सुनहरा भविष्य या फिर सदा से अंधकारमय बना लो अपना जीवन।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में भले ही जनता सर्वोपरि है, लेकिन सिस्टम ने सबकुछ तहस नहस कर दिया है। चुनाव में वोट पाने के लिए जनता को भगवान की तरह पूजने वाले नेता कुर्सी पाने के बाद आखिर कहां गायब हो जाते हैं, यही समझ से परे है। फिर उन्हें जनता की सुख दुख याद नहीं आती। वार्ड स्तर से लेकर उच्च स्तर तक यही हाल है। छत्तीसगढ़ में फिर से विधानसभा चुनाव का बिगुल बज गया है। बीजेपी की पहली लिस्ट आने के बाद राजनीतिक दलों की हल-चल तेज हो गई है। वहीं दोनों प्रमुख दल कांग्रेस और भाजपा के नेता जनता को साधने कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। आलम यह है कि कोई स्वास्थ्य जांच शिविर के बहाने जनता का दुख हरने की कोशिश में है तो वहीं कोई जनता के बीच उनके सुख-दुख में शामिल होकर खुद को उनका सबसे बड़ा हितैषी बता रहे हैं। हालांकि इनमें से कुछ नेता ऐसे भी है, जो चुनाव ही नहीं, बल्कि हर समय जरूरतमंद की सेवा के लिए तत्पर रहते हैं। ऐसे में समय की दस्तक जनता को आगाह कर रहा है कि उसी योग्य नेता को उम्मीदवार चुनो, जो जीतकर जनता का भविष्य गढ़ दे। हालांकि ऐसे नेताओं की कमी है। दूसरी ओर, ऐसे नेताओं को मौका भी नहीं मिलता, जिसके चलते भोलीभाली जनता की तकदीर से बदहाली दूर होने का नाम ही नहीं लेती।
चंद रुपयों में वोटों का सौदा
समय के साथ ही चुनाव भी हाईटेक होते जा रहा है, तो वहीं समाज का एक बड़ा तबका ऐसा भी है, जो दारू, मुर्गा और चंद रुपयों के खातिर अपने वोटों का सौदा करता हैं। यही वजह है कि नेता भी चुनाव जीतने के बाद जनता की ओर मुड़कर नहीं देखता। कारण यही है, कि वो तो वोटों को खरीदकर कुर्सी पाई है। जब तक इस तरह वोटों की खरीदी-बिक्री होते रहेगी, देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था महज कागजों में सिमटी रहेगी। इसके लिए जनता को समय की दस्तक से अपनी आंख खोलने जरूरत है।
व्यवसायीकरण से अछूता नहीं
अभी जिस तरह के हालात है, उससे तो जनसेवा की भावना दूर-दूर तक नेताओं में नहीं दिखती। विभिन्न तरह के चुनावों में जिस तरह पानी की तरह रुपए बहाए जाते है, उन रुपयों की वसूली वो बाद में सूत सहित करते हैं। चुनाव जीतने के लिए जितना भी रुपए लगाया जाता है, वो इस बिजनेस का इन्वेस्ट है। फिर कुर्सी मिलने के बाद उस इन्वेस्ट का मुनाफा पांच सालों तक वसूल किया जाता है। खास बात यह है कि इस क्षेत्र में पैसा तो बेहिसाब है ही, साथ में नाम और पावर बोनस मिलता है।