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कुर्सी के व्यापार में ऑफरों का भंडार, चुनाव के समय खुलता है ऑफरों का पिटारा

हरि अग्रवाल
समय के साथ राजनीति का स्वरूप काफी बदल गया है। पहले राजनीति का मूल उद्देश्य जनसेवा व समाजसेवा हुआ करता था, लेकिन बदले दौर में राजनीति का महज स्वसेवा ही सर्वोपरी जान पड़ता है। इसका कारण तलाश करने पर एक ही बात समझ में आती है, कि भ्रष्टाचार।

देश में भ्रष्टाचार नासूर बन गया है, जो समय के साथ अपने चरम पर है। इससे आम जनता से लेकर हर कोई प्रभावित है। राजनीति भी भ्रष्टाचार से अछूता नहीं है। आए दिन अखबारों में भ्रश्टाचार की खबरें सुर्खियों में रहती है। रोज नए-नए घोटाले सामने आ रहे हैं। कई नामचीन चेहरे बेनकाब भी होते हैं, लेकिन समय के साथ सब दाग धुल जाते है।

छत्तीसगढ़ की बात करें तो अभी प्रदेश में भाजपा की सरकार है। इसके पहले कांग्रेस की सरकार थी। इस दौर में शराब घोटाले की कहानी किसी से छिपी नहीं है। इसी तरह देश में सत्ता पाने और सत्ता जाने के बाद कई बड़े-बड़े घोटाले सामने आए हैं। इससे कहा जा सकता है कि राजनीति भी पूरी तरह भ्रष्टाचार के आगोश में है।

इस लिहाज से देखा जाए तो राजनीति और खासकर चुनाव पूरी तरह व्यापार बन गया है। जिस तरह किसी भी व्यापार में निवेश करने के बाद मुनाफा कमाने के लिए ज्यादा से ज्यादा प्रचार (विज्ञापन) किया जाता है। कई ऑफर दिए जाते हैं, ग्राहक विज्ञापन और ऑफर से प्रभावित होकर कोई भी सामान की खरीदी करता है और व्यापारी को मुनाफा होता है।

ठीक इसी तरह कुर्सी के व्यापार में निवेश करने के बाद जीतने की चाह में जनता से कई लोक लुभावने ऑफरों के भंडार का पिटारा खोल देते है। इन ऑनलाइन और आफलाइन विज्ञापनों की बौछार हो जाती है। जनता को जिसका ऑफर समझ में आती है, उसके पक्ष में वोट करके उसे कुर्सी में बैठा देती है।

हालांकि मतदान करना हर नागरिक का अधिकार है। भारत लोकतांत्रिक देश है। लेकिन राजनीति और चुनाव में पहले की अपेक्षा जिस तरह बदलाव आया है, वह भविश्य के लिए चिंताजनक जान पड़ता है। क्योंकि आज महज पंचायत चुनाव और सिर्फ पंच का चुनाव लड़ने के लिए उम्मीदवार को लाखों रुपए निवेश करना पड़ जाता है।

अब सवाल उठता है कि जिस पंच ने लाखों रुपए खर्च करके कुर्सी हासिल किया है, वो कुर्सी में बैठने के बाद अपने खर्च की भरपाई करेगा या फिर जनसेवा व समाजसेवा करेगा! फिर जनता अपनी विभिन्न समस्याओं के लिए चक्कर काटते रहती है, लेकिन उनकी समस्या धरी की धरी रह जाती है। यह सिर्फ एक पंच का हाल नहीं, बल्कि शीर्ष स्तर तक कुछ ऐसा ही है।

यही वजह है आज राजनीति या फिर खासकर चुनाव पूरी तरह व्यापार बन गया है। समय के साथ इस व्यापार में तकनीक और संसाधन का उपयोग करके इसे हाईटेक बनाया जा रहा है। चुनाव निपटने के बाद जनता हर बार की तरह खुद को ठगा महसूस करते हुए पूरे पांच साल हाथ मलते रह जाती है।

जिस तरह चुनाव के समय अपने लोक लुभावने ऑफरों से जनता को प्रभावित करने का प्रयास किया जाता है और कई बार चुनाव निपटने के बाद कई वायदे धरी की धरी रह जाती है। कुछ वायदों की पूर्ति भी की जाती है तो उसके लिए भी जनता की ही जेब कटती है। यह एक प्रकार से जनता के साथ विश्वासघात है। चुनाव आयोग को ऐसे ऑफरों पर शिकंजा कसने की जरूरत है।